Tuesday, November 8, 2016

नोटबंदी

कतारें थककर भी खामोश हैं, नजारे बोल रहे हैं !
नदी बहकर भी चुप है मगर किनारे बोल रहे हैं !!

ये कैसा जलजला आया है दुनियाँ में इन दिनों !
झोपडी मेरी खडी है और महल उनके डोल रहे हैं !!







Sunday, October 30, 2016

ज्योति पर्व दीपावली मंगलमय हो...

उत्तर से उन्नति,
दक्षिण से दायित्व ,
पूर्व से प्रतिष्ठा,
पश्चिम से प्रारब्ध,
नैऋत्य से नैतिकता 
वावव्य से वैभव,
ईशान से ऐश्वर्य 
आकाश से आमदनी,
पाताल से पूँजी 
दसों दिशाओ से 

शान्ति, सुख, समृद्धि 
एवं सफलता प्राप्त हो। 
आपको एवं आपके सभी परिजनों को 
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।।


Wednesday, October 26, 2016

मैं क्या हूँ?

★ जीवन को शुद्ध, सरल, स्वाभाविक एवं पुण्य-प्रतिष्ठा से भरा-पूरा बनाने का राजमार्ग यह है कि हम अपने आपको शरीर भाव से ऊँचा उठावें और आत्मभाव में जागृत हों। इससे सच्चे सुख-शांति और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आध्यात्म विद्या के आचार्यों ने इस तथ्य को भली प्रकार अनुभव किया है और अपनी साधनाओं में सर्व प्रथम स्थान आत्मज्ञान को दिया है।

★ मैं क्या हूँ? इस प्रश्न पर विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि मैं आत्मा हूँ। यह भाव जितना ही सुदृढ़ होता जाता है उतने ही उसके विचार और कार्य आध्यात्मिक एवं पुण्य रूप होते जाते हैं। इस पुस्तक में ऐसी ही साधनाएँ निहित हैं जिनके द्वारा हम अपने आत्म स्वरूप को पहिचानें और हृदयंगम करें। आत्मज्ञान हो जाने पर वह सच्चा मार्ग मिलता है जिस पर चलकर हम जीवन लक्ष्य को, परमपद को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

★ आत्म स्वरूप को पहिचानने से मनुष्य समझ जाता है कि मैं स्थूल शरीर व सूक्ष्म शरीर नहीं हूँ। यह मेरे कपड़े हैं। मानसिक चेतनाएँ भी मेरे उपकरण मात्र हैं। इनसे मैं बँधा हुआ नहीं हूँ। ठीक बात को समझते ही सारा भ्रम दूर हो जाता है और बन्दर मुट्ठी का अनाज छोड़ देता है। आपने यह किस्सा सुना होगा कि एक छोटे मुँह के बर्तन में अनाज जमा था। बन्दर ने उसे लेने के लिए हाथ डाला और मुट्ठी में भरकर अनाज निकालना चाहा। छोटा मुँह होने के कारण वह हाथ निकल न सका, बेचारा पड़ा-पड़ा चीखता रहा कि अनाज ने मेरा हाथ पकड़ लिया है, पर ज्योंही उसे असलियत का बोध हुआ कि मैंने मुट्ठी बाँध रखी है, इसे छोड़ूँ तो सही। जैसे ही उसने उसे छोड़ा कि अनाज ने बन्दर को छोड़ दिया।

★ काम क्रोधादि हमें इसलिए सताते हैं कि उनकी दासता हम स्वीकार करते हैं। जिस दिन हम विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देंगे, भ्रम अपने बिल में धँस जायगा। भेड़ों में पला हुआ शेर का बच्चा अपने को भेड़ समझता था, परन्तु जब उसने पानी में अपनी तस्वीर देखी तो पाया कि मैं भेड़ नहीं शेर हूँ। आत्म-स्वरूप का बोध होते ही उसका सारा भेड़पन क्षणमात्र में चला गया। आत्मदर्शन की महत्ता ऐसी ही है, जिसने इसे जाना उसने उन सब दुःख दरिद्रों  से छुटकारा पा लिया, जिनके मारे वह हर घड़ी हाय-हाय किया करता था।


Wednesday, September 28, 2016

खाने को दाना नहीं,लड़ने चले है परमाणु युद्ध?

पाकिस्तान पर पूरा देश बोल रहा है। भारत की मीडिया बोल रही है। पर क्या हम पाकिस्तान का सही आकलन कर पा रहे हैं? पठानकोट हो या उड़ी, हम पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हैं। पाकिस्तान के कब्जे में बलूचिस्तान भी है। क्या बलूचों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? बिल्कुल नहीं, बेचारे बलूच तो खुद पीड़ित हैं। इसी तरह खैबर-पख्तूनख्वा और सिंध प्रांत, जहां विभाजन के वक्त भारत से गए मुसलमान जाकर बसे हैं, उनपर भी बेहद जुल्म हो रहे हैं। क्या हम उन्हें भी इसके लिए जिम्मेवार  ठहरा सकते हैं? बिल्कुल नहीं। तो अब बचता है पाक का पंजाब प्रांत।
पूरे पाकिस्तान पर पंजाब के वहाबियों का जोर-जुल्म जारी है। पंजाबी के वहाबी मुस्लिमों का दबदबा सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई पर भी है। तमाम कट्टरपंथी मुल्ला-मौलाना और उनकी दहशतगर्दी की तंजीमें पंजाबी वहाबी देबबंदी से ताल्लुक रखते हैं। ये बड़े-बड़े भू-स्वामी और सामंत हैं। सिंधु नदी का सारा पानी यही इस्तेमाल करते हैं। कृषि, किसान और उर्वर कृषि भूमि के साथ जेहादी-वहाबी इस्लाम के यही सबसे बड़े पैरोकार हैं। पाकिस्तान की सारी लोकतांत्रिक पार्टियां इन्हीं बड़े सामंतों के सामने घुटने टेकती हैं। वहां न भूमि सुधार हुआ है, न समाज सुधार। न औद्योगिकीकरण हुआ है, न शहरीकरण और न ही किसी मजबूत मध्यवर्ग का उदय हुआ है। ऐसे में वहां लोकतंत्र कैसे मजबूत होगा? और मजहबी कट्टरता से वह देश कैसे बाहर निकलेगा?
Balochistanपाकिस्तान में किसी भी राजनीतिक पार्टी का चरित्र सेक्युलर नहीं है। वहां वहाबी-पंजाबी मुल्ला और मौलवियों के पास बहुत ताकत है। सबके रिश्ते जेहादियों-दहशतगर्दों से हैं। पाकिस्तानी सेना आज वहां एक मजबूत पंजाबी बहाबी राष्ट्रवादी संस्था के रूप में मजबूती से स्थापित है।
वहाबी किसानों और वहाबी जवानों के हाथों में पाकिस्तान की राजनीति है। ऐसी स्थिति में हम सिंधु जल समझौते पर पुनर्विचार कर उनको एक जोर का झटका दे सकते हैं। हमारी सरकार इस दिशा में पहल भी कर रही है, जो कि स्वागतयोग्य है। पाकिस्तान के सभी तानाशाह पंजाबी कौम से ही हुए। पाकिस्तानी फौज के अधिकारी पंजाब के बड़े जमींदार घरानों से ताल्लुक रखते हैं। वे सिंध, बलूच और पख्तूनों पर हद जुल्म करते हैं।
बांग्लादेश बनने के पीछे भी यही कहानी थी कि चुनाव में अधिक सीटें जीतने के बाबजूद आवामी लीग के नेता शेख मुजिबुर्रहमान को बस इसलिए पाक का PM नहीं बनने दिया गया कि वह पंजाबी नहीं थे। मानो, पंजाबी वहाबी मुसलमानों के लिए पाक प्रधानमंत्री का पद आरक्षित हो। इसी तरह बलूच, सिंध और पख्तून समुदायों का पाकिस्तान में भविष्य अंधकारमय है और वे अपने उज्जवल भविष्य के लिए पाकिस्तान के पंजाबी वहाबी सत्ता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
ISIS1971 के बांग्लादेश स्वाधीनता संग्राम के समय पाकिस्तानी फौज ने करीब चार लाख बांग्लादेशी बंगाली मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार का घिनौना खेल खेला था। अब वे बलूच महिलाओं के साथ भी यही खेल खेल रहे हैं। बलूच नेता इसका लगातार विरोध कर रहे हैं। पाकिस्तान के पंजाबी वहाबी समुदाय के प्रशिक्षित आतंकी ही भारत आते हैं। इन्हीं इलाकों के ड्रग्स तस्कर पाकिस्तानी फौज की मदद से हमारे पंजाब में ड्रग्स की बड़ी-बड़ी खेप भेजते हैं। पंजाब में आज जो ड्रग्स की समस्या का विकराल रूप है, उसके पीछे भी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की ही भूमिका है।
ड्रग्स की तस्करी हो या दहशतगर्दी, सबकी जड़ पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में ही है। इसलिए जब भी कोई पाकिस्तान के खिलाफ किसी भी प्रकार की रणनीति बनाए, तो नजर में इन बातों को विषेष रूप से रखना चाहिए। वैसे हम युद्ध नहीं, शांति की चाह रखने वाले मुल्क का हिस्सा हैं। INDIAN-ARMYहम हिंसा नहीं, अहिंसा के पक्षधर हैं। मगर अहिंसा के पक्षधर होने का मतलब ये कतई नहीं है कि हम खुद को और अपने देश को असुरक्षित कर लें। सुरक्षा हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसके लिए हमें हर तरह के प्रहार के लिए हमेशा तैयार और तत्पर रहना चाहिए। आत्मरक्षा और देश की रक्षा के लिए आक्रमण सर्वथा न्यायसंगत और युक्तिसंगत है। जो जंग चाहते हैं, उन्हें बस आंख खोलने की जरूरत है। जंग तो चल रहा है। जंग होगा क्या, जंग तो हो ही रहा है। जरूरत है जंग को ज्यादा बढ़ने नहीं देने की। जंग को इस कदर मत फैलाइए कि परमाणु युद्ध हो जाए। यह तो सामूहिक विनाश का युद्ध है।



Monday, September 5, 2016

शिक्षक दिवस पर विशेष...

आज 'शिक्षक-दिवस' है !
सिकंदर और सम्राट चन्द्रगुप्त के बीच का सँघर्ष इन दो राजाओं का नहीं था ! 
सँघर्ष था दो महान गुरुओं की प्रज्ञा चेतना का , दो महान गुरुओं के अस्तित्व का ! 
एक थे सामान्य किन्तु विलक्षण, भारतीय युवा-गुरु,तक्षशिला-स्नातक 'चाणक्य' और दूसरे थे यूनान के कुल-गुरु,राजवंशियों के गुरु 'अरस्तू' परिणाम सामने था ! यहीं से पश्चिम के मन में भारतीय गुरु-परंपरा को लेकर भय और आदर व्यापत हो गया था ! यही कारण है कि मैकाले के मानस पुत्रों ने भारत को जो भीषण कष्ट दिए हैं उन में से एक यह भी है कि पूरी शिक्षा-पद्धति से षड्यंत्र-पूर्वक गुरु' को हटा कर उस की जगह 'शिक्षक' को बिठा दिया ! चाहे- अनचाहे,समय-असमय आज तक के जीवन में प्रथम-गुरु 'माँ' से लेकर हर उस गुरु के चरणों में सादर-साष्टांग प्रणाम निवेदन है जिन की कृपा से मनुष्यता की यात्रा सहज-सुगम हो सकी ! सभी 'गुरुओं' के सतत् आशीष की अपेक्षा में ...

तुम्हारे होने से किस-किस को आस क्या-क्या है ?
तुम्हारी आम सी बातों में ख़ास क्या-क्या है ?
ये तुम ने हम को सिखाया है अपने होने से ,
भले वो कोई हो इन्सा के पास क्या-क्या है .....?



Thursday, August 18, 2016

सुनों ...

कहाँ पर बोलना है और कहाँ पर बोल जाते है,
जहाँ खामोश रहना है वहां मुँह  खोल जाते है, 
कटा जब शीश सैनिक का तो हम खामोश रहते है ,
कटा एक सीन पिक्चर का तो सारे बोल जाते है ,
नयी नस्लो के ये बच्चे जमाने भर की सुनते है ,
मगर माँ बाप बोले तो ये ये बच्चे बोल जाते है, 
आहूत ऊँची दुकानों में काटते जेब सब अपनी ,
मगर मजबूर माँगेगा तो सिक्के बोल जाते है ,
अगर मखमल करे गलती तो कोई कुछ नहीं कहता ,
फटी चादर की गलती हो तो सारे बोल जाते है, 
हवाओं की तवाही को सभी चुप चाप सहते है ,
चरागों से हुयी गलती तो सारे बोल जाते है ,
बनाते फिरते है रिश्ते ज़माने भर से अक्सर, 
मगर जब घर में हो जरुरत तो रिश्ते भूल जाते है! 



Monday, August 15, 2016

स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर....

पन्द्रह अगस्त हमारे राष्ट्र का गौरवशाली दिन है, इसी दिन स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जहां न शोषक होगा, न कोई शोषित, न मालिक होगा, न कोई मजदूर, न अमीर होगा, न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। मगर कहां फलित हो पाया हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न? कहां सुरक्षित रह पाए जीवन-मूल्य? कहां अहसास हो सकी स्वतंत्रा चेतना की अस्मिता?
आजादी के 69 वर्ष बीत गए पर आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे सूत्र सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया।
हमारी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना जैसे बन्दी बनकर रह गई। शाश्वत मूल्यों की मजबूत नींवें हिल गईं। राष्ट्रीयता प्रश्नचिह्न बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी। आपसी सौहार्द, सहअस्तित्व, सहनशीलता और विश्वास के मानक बदल गए। घृणा, स्वार्थ, शोषण, अन्याय और मायावी मनोवृत्ति ने विकास की अनंत संभावनाओं को थाम लिया। 
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन हम सात दशक की यात्रा के बाद भी इससे महरूम हैं। ऐसा लगता है जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। गरीबी हो या महंगाई, बेरोजगारी हो या जन-सुविधाएं, महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न हो या राजनीतिक अपराधीकरण- चहुं ओर लोक जीवन में असंतोष है। लोकतंत्र घायल है। वह आतंक का रूप ले चुका है। हाल ही में मलेशिया एवं सिंगापुर की यात्रा से लौटने के बाद महसूस हुआ कि हमारे यहां की फिजां डरी-डरी एवं सहमी-सहमी है। महिलाओं पर हो रहे हमलों, अत्याचारों और बढ़ती बलात्कार की घटनाओं के लिये उनके पहनावें या देर रात तक बाहर घुमने को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि सिंगापुर एवं मलेशिया में महिलाओं के पहनावें एवं देर रात तक अकेले स्वच्छंद घूमने के बावजूद वहां महिलाएं सुरक्षित है और अपनी स्वतंत्र जीवन जीती है। हमारी दिक्कत है कि हम समस्या की जड़ को पकड़ना ही नहीं चाहते। केवल पत्तों को सींचने से समाधान नहीं होगा। ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्तव्यबोध तो दूर की बात है, हमारे सरकारी तंत्र में न्यूनतम मानवीय संवेदना भी बची हुई दिखायी नहीं देती। जिम्मेदारियों से पलायन की परम्परा दिनों दिन मजबूती से अपने पांव जमा रही है। चाहे प्राइवेट सैक्टर का मामला हो अथवा सरकारी कार्यालयों का-सर्वत्र एक ऐसी लहर चल पड़ी है कि व्यक्ति अपने से संबंधित कार्य की जिम्मेदारियाँ नहीं लेना चाहता। इसका परिणाम है कि सार्वजनिक सेवाओं में गिरावट आ रही है तथा दायित्व की प्रतिबद्धतायें घटती जा रही हैं। अनिश्चितताओं और संभावनाओं की यह कशमकश जीवनभर चलती रहती है। जन्म, पढ़ाई, करियर, प्यार, शादी कोई भी क्षेत्र हो। नई दिशा में कदम बढ़ाने से पहले कई सवाल खड़े होने लगते हैं। आखिर कब हमें स्वतंत्रता का वास्तविक स्वाद मिलेगा?
कैसी विडम्बना है कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपने ही देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री पर हत्या करवा देने का आरोप लगाता है, निश्चित ही इस तरह का आरोप लोकतंत्र की अवमानना है। स्वतंत्रता के सात दशक के बाद भी हमारी राजनीतिक सोच का इतना घिनौना होना देश के राजनीतिक-परिदृश्य के लिये त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण है। कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे? जब शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देने की तलाश में हैं। जब रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां हैं। 
बुद्ध, महावीर, गांधी हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए।




Friday, August 5, 2016

शब्द ...

बहता दरिया है शब्दों का,
तुम छंदों की कश्ती ले लो !
जब गीत कमल खिल जाएँ तब,
तुम भँवरों की मस्ती ले लो  !!
टूटे-फूटे थे शब्द वहाँ,
फिर भी वो गीत रचा लाया !
कोई बहारों वाली बात न थी,
फिर भी वो ग़ज़ल सजा लाया !!
परिहासों की उस बस्ती का,
संजीदा हुक्म बजा लाया !!!
उसने सीखा खाकर ठोकर,
तुम सीख यहाँ यूँ ही ले लो !
बहता दरिया है शब्दों का
तुम छंदों की कश्ती ले लो !!
ये मज़हब-वज़हब की बातें,
आपस के रिश्ते तोड़ रहीं ! 
और सहन-शक्तियाँ भी अब तो,
दुनिया भर से मुँह मोड़ रहीं  !!
धर्मों के झूठे गुरुओं की,
तक़रीरें हृदय झंझोड़ रहीं !!!

या दाम चुका कर लो नफ़रत,
या दिल की प्रीत युँ ही ले लो !
बहता दरिया है शब्दों का
तुम छंदों की कश्ती ले लो  !!
आदर्शों और बलिदानों की,
उसको तो रस्म निभानी है !
हाँ मातृ-मूमि पर न्यौछावर,
होने की बस यही जवानी है  !!
हृदयों को जिसने है जीता,
उसकी ही कोकिल बानी हैं !!!
दिन रोकर काटो या हँसकर,
जो चाहो रीत, यहीं ले लो !
बहता दरिया है शब्दों का
तुम छंदों की कश्ती ले लो  !!


Friday, July 29, 2016

सुना है...

माननीय वित्त मंत्री जी ने सदन को बताया कि विश्वस्तर पर दाल का उत्पादन कम हुआ है इसलिए दाल की कीमतें बढ़ी हैं। चलिए मान लेते हैं आपकी बात। विश्वस्तर पर क्रूड आयल की कीमतें बहुत कम हो गयीं लेकिन आपने उसका पूरा लाभ नहीं दिया जनता को। आपने एक्साइज ड्यूटी बढ़ा कर अपना खज़ाना भरना शुरू कर दिया। अगर इसी खजाने से दाल पर कुछ सब्सिडी दे दें  तो गरीबों की दाल रोटी चल जायेगी। लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे बल्कि कल अगर दाल की कीमत कम भी हो गयी तो आप उस पर भी एक्साइज ड्यूटी लगा कर वर्तमान मूल्य पर स्थिर कर देंगे क्योंकि तब तक लोगों की नए दाम की आदत हो जायेगी।कुछ लोग दाल का स्वाद भी भूल चुके होंगे। सत्य है कि विकास के लिए अगर पेट का बलिदान भी करना पड़े तो यह राष्ट्रधर्म है। राष्ट्र पर घोर संकट है ऐसे में राष्ट्रविरोधियों द्वारा दाल खाने की बात करना सरकार को अस्थिर करने और राष्ट्र की गरिमा को जानबूझ कर क्षति पँहुचाने का षड्यंत्र है। आप इससे निबटने में लिए तैयार हैं। हो सकता है कल दाल की बात करने वालों को राष्ट्र रक्षक दौड़ा कर पीटना शुरू कर दें।
मैं अभी से अपनी सुरक्षा कर लेता हूँ। भारत माता की जय
   




Sunday, July 24, 2016

मैं शरीर नहीं हूँ...

 

जीव जिस रूप में आता है उसी रूप में चला जाता है। न आने के समय कोई साथ न जाने के समय। यात्रा के पड़ाव में अनेक संगी साथी अवश्य हो जाते हैं, सो सुखमय यात्रा के लिए जहाँ यह आवश्यक है कि सब लोग प्रेमभाव से चलें, नीति और सदाचार का पालन करें, विश्व-बंधुत्व की भावना की अनुशीलन करें वहाँ यह भी नितान्त आवश्यक है कि अपनी एकाकी यात्रा के लिए भी पूर्ण तैयारी करते हुए आगे बढ़े। निराश, भय और विक्षोभ उस महाशून्य की यात्रा में बाधक न बनें इसके लिए जो भी अभी तैयार नहीं हुआ उसका यहाँ आना निरर्थक गया।

“मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर अवश्य मेरा है। दूर से आता रथ तो दिखाई देता है किन्तु रथी नहीं। अपनी दृष्टि का छोटा होना-अपनी दर्शन की क्षमता का संकुचित होना मात्र कारण है अन्यथा बुद्धि जानती है कि रथ में जुते हुए घोड़ों को सीधे रास्ते लाने ले जाने वाले वाहन में कोई रथी अवश्य बैठा होगा। शरीर भी एक रथ है, आत्मा उसका सारथी, इन्द्रियाँ ही वह घोड़े है जिन पर नियन्त्रण रखकर सारथी उन्हें जिधर चाहे ले जा सकता है। महत्व रथ और घोड़े का नहीं उसके स्वामी-आत्मा का है सो अपनी दृष्टि, अपनी बुद्धि, अपना ज्ञान और तर्क इतना संकीर्ण नहीं होना चाहिए कि आत्मा को भी न पहचाना जा सके।

घोड़े (इन्द्रियाँ) थके, रथ (शरीर) टूटे इसके पूर्व हमें उस स्थान तक पहुँच ही लेना चाहिये महाकाल की महा निशा में सुखपूर्वक विश्राम कर जहाँ से आगे की यात्रा में बढ़ा जा सके। भारी मन थके शरीर भटके हुए पथ की यात्रा कष्टप्रद होती है इसलिये इस जीवन यात्रा को बहुत सोच समझ कर जीना चाहिये।

-भगवान् बुद्ध

अखंड ज्योति Nov - 1971



Friday, July 22, 2016

प्रसन्न रहो...

बस अकारण प्रसन्न रहो
बस एक यही पल है,
बाकी सब तो 
मन का ही छल है,
कभी हँसी होठों पे 
कभी आँखों में जल है,
कभी गान मिलन के 
कभी विदा की हलचल है.
बस इक लम्हा है 
हाथ हमारे,
बाकी तो बस 
धुंए का बादल है 
इसीलिए कारण मत ढूंढो 
बस सहज रहो,प्रसन्न रहो।




Wednesday, July 13, 2016

ख्वाब ऐसे हैं...

कुछ ख्वाब ऐसे हैं कि 
दिल में रहते ही नहीं,
और दिल से 
निकलते भी नहीं 
अजीब सा 
रिश्ता है खुद से 
उन ख्वाबों का 
मिलने से इंकार 
भी नहीं लेकिन 
मिलते भी नहीं 
हर सिम्त 
हर कदम 
साथ चलते है 
लेकिन पांवों से 
लिपटते भी नहीं 
और बिछड़ते भी नहीं 



Sunday, May 15, 2016

कठिन समस्याओं का सरल समाधान

प्रसन्नता, अप्रसन्नता, आत्मरक्षा, संघर्ष, जिज्ञासा, प्रेम, सामूहिकता, संग्रह, शरीर पोषण, क्रीड़ा, महत्व प्रदर्शन, भोगेच्छा यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है। शरीर और मन परिस्थितियों के अनुसार इन परिस्थितियों के क्षेत्र में विचरण करते रहते है। उसकी एक अध्यात्मिक विशेषता भी है जिसे महानता, धार्मिकता, आस्तिकता, दैवी सम्पदा आदि नामों से पुकारते है। उसके द्वारा मनुष्य दूसरों को सुखी बनाने के लिए अपने आपको कष्ट में डाल कर भी प्रसन्नता अनुभव करता है। दूसरों के सुख में अपना सुख और दूसरों के दुःख में अपना दुःख मानता है। जिस प्रकार अपने सुख को बढ़ाकर और दुःख को घटाकर प्रसन्नता का अनुभव होता है इसी प्रकार दूसरों में आत्मीयता का आरोपण करके उनके हित साधन में भी संतोष और सुख का अनुभव होता है।

यह उदारता एवं सेवा की वृत्ति तभी प्रस्फुटित होती है जब मनुष्य अपने आपको संयमित करता है। अपने लिए सीमित लाभ में संतोष करने से ही दूसरों के प्रति कुछ उदारता प्रदर्शित करना संभव होता है। इसलिए इस सर्वतोमुखी संयम को नैतिकता या धर्म के नाम से पुकारा जाता है। इसी का अभ्यास करने के लिए नाना प्रकार के जप, तप, व्रत अनुष्ठान किये जाते है। शास्त्र श्रवण, स्वाध्याय और सत्संग का उद्देश्य भी इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित करना है। चरित्र निर्माण और नैतिकता भी इसी प्रक्रिया का नाम है। पुण्य, परमार्थ भी इसी को कहते है और स्वर्ग तथा मुक्ति इसके फल माने गये है। ईश्वर उपासना के महात्म्य से यह आत्म-निर्माण का कार्य अधिक सरलता से पूर्ण होता है।

सरलता और सान्त्वना चाहिए। 
दुखियों को तुम्हारी सान्त्वना भी आवश्यकता है। परेशान और पीड़ित मनुष्य दूसरों से यह आशा करता है कि उसके कष्ट में कमी करने के लिए कोई सहायक व्यक्ति उससे साधनों से न सही कम से कम वचन और भावना द्वारा उसे आश्वासन प्रदान करेंगे।

जिन भूलों के कारण उसे दुःख उठाना पड़ा, इनको व्यंग भरे छेदने वाले शब्दों से कहना, ताना देना, उपहास उड़ाना असज्जनता भरा अमानवीय कार्य है। दुःख देने के लिए उसकी परिस्थितियाँ ही पर्याप्त है, कटु शब्दों के डंक मार कर उसकी व्यथा और बढ़ाकर हम उसका क्या उपकार करते है?

कोई परेशान व्यक्ति आपके पास इसलिए नहीं आता कि उसके कष्ट को मर्मभेदी वचन कह कर

हृदय का संस्कार।
बुद्धि का संस्कार करना उचित है। पर हृदय का संस्कार करना तो नितान्त आवश्यक है। बुद्धिमान और विद्वान बनने से मनुष्य अपने लिए धन और मान प्राप्त कर सकता है। पर नैतिक दृष्टि से वह पहले दर्जे का पतित भी हो सकता है। आत्मा को ऊँचा उठाना और मानवता के आदर्शों पर चलने के लिए प्रकाश प्राप्त करना हृदय के विकास पर ही निर्भर है। बुद्धि हमें तर्क करना सिखाती है और आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन खोजती है। जैसी आकाँक्षा और मान्यता होती है उसके अनुरूप दलील खोज निकालना भी उसका काम है पर धर्म कर्तव्यों की ओर चलने की प्रेरणा हृदय से ही प्राप्त होती है।

जब कभी बुद्धि और हृदय में मतभेद हो, दोनों अलग अलग मार्ग सुझाते हो तो हमें सदा हृदय का सम्मान और बुद्धि का तिरस्कार करना चाहिए। बुद्धि धोखा दे सकता है पर हृदय के दिशासूचक यंत्र (कुतुबनुमा) की सुई सदा ठीक ही दिशा के लिए मार्ग दर्शन करेगी।

गलतियाँ और उनके सुधार
तैरना सीखने वाला डूब जाने के सिवाय और सब गलतियाँ कर सकता है। तब वह अचानक किसी दिन देखता है कि उसे तैरना आ गया। इसलिए गलतियाँ होती है तो निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जिस तरह बिना गलतियाँ किये तैरना नहीं आता उसी तरह गलतियों के बिना जिन्दगी जीना भी नहीं सीखा जाता।

मनुष्य अपूर्ण है इसलिए उसके कार्यों में गलती हो सकती है। इसमें शर्म की कोई बात नहीं है शर्म की बात यह है कि गलती को सही साबित करने और उस पर अड़े रहने की कोशिश की जाय। गलती को ढूँढ़ना मानना और सुधारना किसी मनुष्य के बड़प्पन का कारण हो सकता है। जो सीखने और सुधारने में लगा हुआ है वही एक दिन उस स्थिति को पहुँचेगा जिसमें त्रुटियों और बुराइयों से छुटकारा मिलता है।

दुर्भावनाओं का स्वास्थ्य पर प्रभाव
अस्वस्थ मन वाले व्यक्ति का शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता। जिसका मन चिन्ता, भय, शोक, क्रोध, द्वेष, घृणा आदि से भरा रहता है उसके वे अवयव विकृत होने लगते है जिनके ऊपर स्वास्थ्य की आधार शिला रखी हुई है। हृदय, आमाशय, जिगर, आँतें, गुर्दे तथा मस्तिष्क पर मानसिक अस्वस्थता का सीधा असर पड़ता है। निष्क्रियता आती है उनके कार्य की गति मंद हो जाती है, अन्न पाचन एवं शोधन, जीवन कोषों का पोषण ठीक प्रकार न होने से शिथिलता का साम्राज्य छा जाता है। पोषण के अभाव से सारा शरीर निस्तेज और थका मादा सा रहने लगता है। जो विकार और विष शरीर में हर घड़ी पैदा होते रहते है, उनकी सफाई ठीक प्रकार न होने से वे भीतर ही जमा होने लगते है। इनकी मात्रा बढ़ने से रक्त में, माँस पेशियों में और नाडियों में विष जमा होने लगता है जो अवसर पाकर नाना प्रकार के रोगों के रूप में फूटता रहता है। ऐसे लोग आये दिन किसी न किसी बीमारी से पीड़ित रहते देखे जाते है। एक रोग अच्छा नहीं होता कि दूसरा नया खड़ा होता है।

दुश्चिंताऐं जीवन शक्ति को खा जाती है। शरीर के अंदर एक विद्युत शक्ति काम करती है, उसी की मात्रा पर विभिन्न अवयवों की स्फूर्ति एवं सक्रियता निर्भर रहती है। इस विद्युत शक्ति का जितना ह्रास मानसिक उद्वेगों से होता है उतना और किसी कारण से नहीं होता। पन्द्रह दिन लंघन में जितनी जितनी शक्ति नष्ट होती है उससे कही अधिक हानि एक दिन के क्रोध या चिन्ता के कारण हो जाती है। जिसका मन किसी न किसी कारण परेशान बना रहता है, जिसे अप्रसन्नता, आशंका तथा निराशा घेरे रहती है उसका शरीर इन्हीं अग्नियों से भीतर ही भीतर घुलकर खोखला होता रहेगा। चिन्ता को चिन्ता की उपमा दी गई है वह अकारण नहीं है। वह एक तथ्य है। चिन्तित रहने वाला व्यक्ति घुल घुलकर अपनी जीवन लीला को समय से बहुत पूर्व ही समाप्त कर लेता है।


अखण्ड ज्योति Jun 1961 





Sunday, February 14, 2016

मुहब्बत है...

मुहब्बत है...
मुझे अपनी तनहाई से,
जो मुझे तुम्हारी याद के करीब  लाती है.

मुहब्बत है...
मुझे उस ख्वाब से ...
जो सिर्फ तुम्हें देखा करता है.

मुहब्बत है...
मुझे गुज़री रात से,
जो बीत गयी तुम्हारी याद में.

मुहब्बत है...
मुझे उस सवाल से,
जिसका जवाब तुम हो.

मुहब्बत है...
मुझे अपने दिल से,
जो धड़कता है सिर्फ तुम्हारे लिए,

मुहब्बत है...
मुझे अपनी सांस से,
जिस में सिर्फ तुम्हारा नाम बसा है' ...



Monday, January 18, 2016

Amazing facts of Psychology:

1. Psychology says, never get too attached to anyone unless they also feel the same towards you, because one sided expectations can mentally destroy you!
2. Psychology says, the person who tries to keep everyone happy often ends up feeling the loneliest.
3. Psychology says, the worst person to be around is someone who complains about everything and appreciates nothing.
4. Psychology says, the human brain isn’t fully functional for learning until after 10 AM, science has proved that schools
begin way too early.
5. Psychology says, 'K' is the worst, most annoying, most irritating, aggravating response ever.
6. Psychology says, music and sleep, two great ways to escape from everything.
7. Psychology says, if you never learn how to control your thoughts, you will never learn how to control your behavior.