Monday, August 15, 2016

स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर....

पन्द्रह अगस्त हमारे राष्ट्र का गौरवशाली दिन है, इसी दिन स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जहां न शोषक होगा, न कोई शोषित, न मालिक होगा, न कोई मजदूर, न अमीर होगा, न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। मगर कहां फलित हो पाया हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न? कहां सुरक्षित रह पाए जीवन-मूल्य? कहां अहसास हो सकी स्वतंत्रा चेतना की अस्मिता?
आजादी के 69 वर्ष बीत गए पर आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे सूत्र सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया।
हमारी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना जैसे बन्दी बनकर रह गई। शाश्वत मूल्यों की मजबूत नींवें हिल गईं। राष्ट्रीयता प्रश्नचिह्न बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी। आपसी सौहार्द, सहअस्तित्व, सहनशीलता और विश्वास के मानक बदल गए। घृणा, स्वार्थ, शोषण, अन्याय और मायावी मनोवृत्ति ने विकास की अनंत संभावनाओं को थाम लिया। 
स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, लेकिन हम सात दशक की यात्रा के बाद भी इससे महरूम हैं। ऐसा लगता है जमीन आजाद हुई है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है। गरीबी हो या महंगाई, बेरोजगारी हो या जन-सुविधाएं, महिलाओं की सुरक्षा का प्रश्न हो या राजनीतिक अपराधीकरण- चहुं ओर लोक जीवन में असंतोष है। लोकतंत्र घायल है। वह आतंक का रूप ले चुका है। हाल ही में मलेशिया एवं सिंगापुर की यात्रा से लौटने के बाद महसूस हुआ कि हमारे यहां की फिजां डरी-डरी एवं सहमी-सहमी है। महिलाओं पर हो रहे हमलों, अत्याचारों और बढ़ती बलात्कार की घटनाओं के लिये उनके पहनावें या देर रात तक बाहर घुमने को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि सिंगापुर एवं मलेशिया में महिलाओं के पहनावें एवं देर रात तक अकेले स्वच्छंद घूमने के बावजूद वहां महिलाएं सुरक्षित है और अपनी स्वतंत्र जीवन जीती है। हमारी दिक्कत है कि हम समस्या की जड़ को पकड़ना ही नहीं चाहते। केवल पत्तों को सींचने से समाधान नहीं होगा। ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्तव्यबोध तो दूर की बात है, हमारे सरकारी तंत्र में न्यूनतम मानवीय संवेदना भी बची हुई दिखायी नहीं देती। जिम्मेदारियों से पलायन की परम्परा दिनों दिन मजबूती से अपने पांव जमा रही है। चाहे प्राइवेट सैक्टर का मामला हो अथवा सरकारी कार्यालयों का-सर्वत्र एक ऐसी लहर चल पड़ी है कि व्यक्ति अपने से संबंधित कार्य की जिम्मेदारियाँ नहीं लेना चाहता। इसका परिणाम है कि सार्वजनिक सेवाओं में गिरावट आ रही है तथा दायित्व की प्रतिबद्धतायें घटती जा रही हैं। अनिश्चितताओं और संभावनाओं की यह कशमकश जीवनभर चलती रहती है। जन्म, पढ़ाई, करियर, प्यार, शादी कोई भी क्षेत्र हो। नई दिशा में कदम बढ़ाने से पहले कई सवाल खड़े होने लगते हैं। आखिर कब हमें स्वतंत्रता का वास्तविक स्वाद मिलेगा?
कैसी विडम्बना है कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री अपने ही देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री पर हत्या करवा देने का आरोप लगाता है, निश्चित ही इस तरह का आरोप लोकतंत्र की अवमानना है। स्वतंत्रता के सात दशक के बाद भी हमारी राजनीतिक सोच का इतना घिनौना होना देश के राजनीतिक-परिदृश्य के लिये त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण है। कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे? जब शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देने की तलाश में हैं। जब रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां हैं। 
बुद्ध, महावीर, गांधी हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए।




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