Tuesday, December 31, 2013

बेवजह आरोप है...


बेवजह आरोप है,
मुझ पर झूठ बोलने का,
तुमने कब सुनना चाहा था सच,
हर बार झूठ तुम्हे अच्छा लगा,
और हर सच बुरा,
तुम्हे जो पसंद था,
वही तो किया हमने,
ये लो अब आज मैं
ये भी मान ही लेता हूँ,
तुम्हें जो पसंद है,
मैं हूँ...
झूठा,
बेवफा,
बेकदर,
बेरहम....
आदि..आदि,
पर ये सब भी
बेवजह ही तो है...

















Wednesday, August 21, 2013

नैतिक संस्कारों का पोषक पर्व है 'रक्षाबंधन'!

श्रावणी पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले इस पर्व पर प्रत्येक भाई बहन एक धर्म सूत्र में बंधकर शुभ संकल्प लेते है| यह पर्व आत्मोन्नति का पर्व होने के साथ ही मन की चंचलता को दूर कर शीतलता प्रदान करने वाला पर्व है|जिस प्रकार भगवान भक्त की पूजा के भूखे होते है ठीक उसी प्रकार एक बहन भी अपने भाई से अपनी सुरक्षा और स्नेह का वचन लेती है और ईश्वर से यह प्रार्थना करती है की उसका भाई सदैव स्वस्थ निरोग और दीर्घायु रहे|इसी राखी के पवित्र बंधन ने महाशक्तिशाली असुरराज बलि को बांध दिया था| देवासुर संग्राम मे जब 12 वर्षों तक युद्ध का निर्णय न नीलता दिखाई दे रहा था तब इंद्राणी ने गुरु बृहस्पति के सुझाव पर स्वयं देवराज इन्द्र को यही रक्षासूत्र बांधा ताकि देवराज की युद्ध में विजय हो|आज हमे भी यह संकल्प लेना होगा की हम धार्मिक जीवन,सुसंस्कृत जीवन,नैतिक जीवन को आत्मसात करते हुये और भोग विकृतियों का परित्याग करते हुये अपना नैतिक और सामाजिक उत्थान कर सके|आज इसी ऐतिहासिक भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक पर्व रक्षाबंधन की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाए और बधाई!    

   

Monday, August 5, 2013

मत कहो...

मत कहो कि मै नहीं हूँ
कहीं चला गया हूँ
बस स्थिर हो गया हूँ
बोल नहीं सकता हूँ
पर देख सकता हूँ
सुन सकता हूँ
क्योंकि मै जीवित हूँ...
तुम्हारी यादों में
तुम्हारे आँगन में
देखना तुम मुझे
बदलते मौसम में
खिलते हुये फूलों में
सपनों के महल में
अपने कर्तव्यों में...
जो तुम्हें मिला है
इसे संभालना
लगन से संवारना
विश्वास बनाए रखना
प्रगति के पथ पर
अग्रसर रहना...
मै जीवित रहूँगा
तुम्हारे हर लम्हों में
यादों के हर पन्नों में...

Friday, August 2, 2013

बाबूजी कहते थे...


मनुष्य जहां तक आकांक्षा करता है वहाँ ही तक पहुंचता है| बनने की लालसा ही उसके बन सकने का मापक यंत्र है| अपने विचार को दृढ़ करना सफलता को पहले ही हथियाना है| जिस तरह मनुष्य निकृष्ट चीजों के विषय में अनुभव करता है तथा उन्हे जान सकता है| जिस तरह से वह मनुष्य हुआ है उसी तरह से वह देव भी हो सकता है| उच्च तथा नैसर्गिक दिशा की ओर मस्तिष्क को झुकाना अत्यंत आवश्यक है|
विचारशील पुरुष के अपवित्र विचारों के सिवाय और अपवित्रता क्या है?मननशील पुरुष की भव्य भावनाओं को छोड़ और पवित्रता क्या है? कोई मनुष्य दूसरे की सोची हुयी बात नहीं करता|प्रत्येक पुरुष स्वयं ही पवित्र या अपवित्र है| आकांक्षाशील पुरुष अपने सामने स्वर्गीय शिखर के रास्ते को देखता है और उसका हृदय परम शांति का पहले ही अनुभव करता है|             


Wednesday, July 24, 2013

जीवन...

जीवन एक संघर्ष है !
जीवन के सफर मे

आज एक कटु अनुभव
और हुआ जब मेरे पूज्य
पिता जी ने अपने नश्वर
शरीर का त्याग कर आज

इस संसार से अंतिम सांस
ले विदा ले लिया और मैंने
महसूस किया कि हमारे

मनीषियों ने जो कहा है कि
'मृत्यु एक शाश्वत सत्य है'
वह मिथ्या नहीं है कोई
कितना ही प्रगति कर ले
किन्तु प्रकृति के नियमो को
बदल नहीं सकता इसे झुठला

नहीं सकता.....

Wednesday, July 3, 2013

बस्ते तले दबता बचपन...

निःसंदेह आरंभ से ही बच्चों को शिक्षा देना आवश्यक है
परंतु क्या शिक्षा का मापदंड मात्र स्कूल की किताबे ही है?
शायद नहीं | क्योंकि बच्चों को सीखने और पढ़ाने के कई
ऐसे भी तरीके है जिनके माध्यम से बच्चा किताबों की अपेक्षा
जल्दी और आसानी से सीख जाता है तो फिर उनके बचपन
को बस्ते के तले दबाने का औचित्य क्या है ?


Sunday, May 12, 2013

कब मिलते है ?

जिन से दिल मिलते है
वो लोग कब मिलते है?
जो दिल को खुशी दें
वो पल कब मिलते है? 
जो पावों को ठंडक दे
वो पथ कब मिलते है?
जो प्यास बुझा दे
वो घन कब मिलते है?
कष्ट में भी सुकून दे
वो दर्द कब मिलते है?
जिंदगी भर साथ दे
वो मी
कब मिलते है?
मंजिल तक जो साथ दे
वो हमराह कब मिलते है?
गिरने से पहले ही थाम ले 
वो सहारे कब मिलते है? 


Sunday, May 5, 2013

दर्पण

वह दर्पण जो तुम लाये थे
उसके रुख को मोड दिया है.
पर दूसरे में भी तुम थे
उसको मैंने तोड़ दिया है
मगर अब तो ऐसा लगता है..
कि हर दर्पण में तुम्ही तुम हो
इसलिए अब तो मैंने दर्पण के
सामने ही जाना छोड़ दिया है...     


Wednesday, April 24, 2013

कैसी हों आपकी 'वो'?


वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहली किरणों से रंजीत कर देती है|फिर मध्यान के प्रखर का सुनहला आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ जाती है,उसके बाद शीतलता और शांति लिए   विश्राम संध्या आती है जब हम थके मांदे पथिकों की भांति तटस्थ भाव से हम अपनी दिनभर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते है जहां नीचे का कलह हम तक नहीं पहुंचता|
दाम्पत्य जीवन मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन के प्रबुद्ध पारखी मुंशी प्रेमचंद जी की तूलिका से निःसृत उक्त चंद शब्द वैवाहिक जीवन की जीती जागती तस्वीर प्रस्तुत कर रहें है|इस दृष्टि से वर्तमान परिवेश में यदि उपलब्ध वैवाहिक जीवन का गौर से निरीक्षण करें तो आप पाएंगे कि आज के दंपतियों में मदध्यान के प्रखर ताप का ही एकाधिकार है|प्रभात का क्षण आता जरूर है किन्तु पालक झपकते ही उदय दुखद अस्त में बदल जाता है|सुहाग बेला के इने गिने चंद क्षणों में ही इसकी परिणति हो जाती है और संध्या का समय तो स्पृहणीय है|यह तो उन विरले भाग्यवानों को ही नसीब होती है जिन्हें जीवन अपेक्षाकृत जीवन की यथार्थ कटुता को पवित्रता पूर्वक झेलकर दंपति जीवन में प्रवेश करता है और जीवन के संघर्ष पूर्ण बिंदुओं को स्मरण करता है जिनहे वह पूरी निर्भयता,पवित्रता एवं समर्पण से आलिंगन किए था|
आज ऐसा नहीं है क्योंकि आज का समाज अनमेल विवाह के अभिशाप से ग्रस्त है प्रतिकूलता की कालजयी व्याधि उसके जिगर को बुरी तरह से कुरेदते-कुरेदते उन्हें निष्प्राण करने को आमादा है|फिर भी इसके सुधार के लिए आज के शांतिदूतों की आंखे मुँदी हुई है यही दुख है|चंद दिवसीय स्वप्न सुख शांति पूर्वक व्यतीत होने के बाद सदैव के लिए व्यक्ति के ऊपर विषाद और वेदना का गहन अंधकार छा जाता है,कोमल कपोलो पर उठने वाले हिमजल सदृश शीतल और मृदुल मुस्कान पीड़ा की दीर्घ निःश्वास में बदल जाती है|मदध्यान  के इस प्रखर ताप से तप्त हृदय का रस पिघलकर गरम आंसुओं के रूप मे श्रावित होता है जो कुसुम कपोलो को झुलसा देता है|यह यौवन रंजित सारे रंग और उभारों  को यह ज्वाला वशीभूत कर देती है|ख्वाबो का किला इस प्रचंड ताप का सामना नहीं कर पाता कारण जीवन का मूल ही प्रतिकूलता के जहर से अभिसंचित हो गया है,एक जलाना चाहेगा तो एक बुझाना| परिणाम होगा वाद-विवाद,विध्वंश और विनाश|विवाह से वैवाहिक जीवन पलायित हो रहा है,शादी बर्बादी का साम्राज्य स्थापित कर रही है इसका मूल कारण यही है|
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह एक सूक्ति  ही नहीं बल्कि जीवन का आधार  है|ऐसा कौन अभागा होगा जो चाहेगा कि उसके पास अपनों कि भीड़ रहे और वह  अकेले में आह भरता रहे|किसे मंजूर होगा कि उसे निर्जीव ढेले कि भांति जो जिधर चाहे फेंक दे और वह इसका प्रतिरोध भी न कर सके,शायद कोई नहीं|किन्तु आज का युवा इसी दयनीयता से गुजर रहा है क्यों? इसके दो कारण है-एक तो उसकी पुरुषत्व हीनता और दूसरी अभिभावकों की निम्न स्तरीय स्वार्थयुक्त विकृत मानसिकता|
अपने नज़रिये को बदलते हुये इन कारणों का उच्छेद आज की नितांत आवश्यकता है|विवाह भौतिक एवं अभौतिक उन्नति का एक सशक्त साधन है|गृहस्थ जीवन की नीव पर ही समाज टिका है इसकी सुदृढ़ता के लिए जीवन के भौतिक पक्ष की वकालत नहीं की जा सकती| उससे भी महत्वपूर्ण है जीवन का दूसरा पहलू जिसे आध्यात्मिकता की संज्ञा दी जाती है |हमारी नैतिकता और मानवीयता को स्थान नहीं दिया ज्ञ है|वैवाहिक संबंधो के निर्णय में भौतिकता ही वर वधू की योग्यता का एक मात्र मापदंड बनी|इसी का ही सुपरिणाम है यह स्थिति|
विवाह एक पवित्र बंधन है और प्रेम,शखय,सहयोग,त्याग,समर्पण और सय्यम जिसकी आहुतियाँ है|विवाह को आज यंत्रीकरण समझा जाने लगा है,आज विवाह एक संस्कार नहीं बल्कि एक औपचारिक सोपान मात्र रह गया है|यह औपचारिकता भी स्वतंत्र नहीं वरन जाति,दहेज एवं तथाकथित समाज धर्म के कारागार में कैद है जिसमें स्वार्थयुक्त हवस का अटूट ताला बंद है|यही कारण है की नवजागरण के बाद भी आज समाज में जहां पत्नियों को अभिशाप,वासना या भोग सामग्री समझने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है वहीं पतियों का अस्तित्व भी खतरे में है|आज पति पत्नियों के लिए आराध्य,उपासना एवं श्रद्धा का विषय नहीं बल्कि भर्त्सना,प्रतिस्पर्धा एवं तनाव-टकराव का विषय बन चुका है|यह बात अलग है की इसमें पटनीय थोड़ा पीछे है|क्योंकि विवाह विच्छेद का श्रेणात्मक प्रभाव ज्यादातर उन्ही पर पड़ता है|हत्या व आत्महत्या प्रायः उन्ही के आँचल में खेलती है|
प्रेम की आज कोई सुगन्धि नहीं,मनुष्यता मिटने के कगार पर है|नग्न नर समाज के नेत्रों के ऊपर हवसभरी वासना की परत इस कदर चढ़ी है कि उसे वैयक्तिक स्वार्थभितसा के अलावा विवाह का कोई अर्थ ही नहीं सूझता|आज का व्यक्ति एक ऐसा व्यक्ति है जिसमें व्यक्तित्व ही नहीं रह गया|वह एक लाश एक शैतान मात्र बन गया है|आज हमारा समाज नार्को इस दलदल मे डूबता जा रहा है और जीवन को बोझ बनाकर उसे धोने का कृत्रिम नाटक कर रहा है|
जीवन साथी का चयन प्रायः हमारे घर के बड़े-बूढ़े अभिभावक करते हैं|विवाह संपन्नता तक की समस्त औपचारिकताए उन्ही की होती है इसका उन्हे एकाधिकार होता है|क्या मजाल जो हम कह सके की ये रिश्ता हमें मंजूर नहीं हमें अपने वैवाहिक जीवन का निर्णय लेने की स्वंत्रता चाहिए और रिश्ता हो जाने के बाद तब तक तोड़ना सामाजिक अपराध ही नहीं बल्कि संवैधानिक अपराध हो जाता है और अंततः तत्कालीन यही दशा आती है कि मरे या मारे|क्या यह जरूरी नहीं कि यह दशा ही न आए?और हमारे पारखी अभिभावक पहले ही जीवन पारखी साबित हों?लेकिन कैसे?उनके इस महानिर्णय में भौतिक परिवेश ही सर्वस्व है|जाति-दहेज और रूपरंग कि भूमिका उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं|नैतिक अथवा व्यक्तिगत स्तर को वहाँ गौण स्थान भी नहीं है यही कारण है कि 90% रिश्ते अयोग्यहों जाते है|पैसा बहुत कुछ है किन्तु उससे सब कुछ तो नहीं खरीदा जा सकता|ऐसे में प्रेम,आनंद अथवा समंजस्य,भौतिकता उनकी जीवन शैली को व्यवस्थित करने मे असफल रहती है और इनमे तालमेल नहीं बैठता|परिवार अभावों,मन-मुटावों और झगड़ों का रंगमंच बन कर रह जाता है|जरूरी है कि जीवन कि समस्यावो व वर्तमान शैली की जटिलटावों को दृष्टि में रखते हुये हमारा समाज अपने पूर्वाग्रह को छोड़ दे|
पति-पत्नी जीवनरूपी रथ के दो पहिये है जिसके सुचारु रूप से चलने के लिए जरूरी है कि दोनों पहिये समान हो,हमारा जीवनसाथी ऐसा हो जो हमारी आंखो कि भस को पढ़ सके|हमारी भावनाओ की कद्र कर सके|हमारे दिलकी धड़कनों को सुन सके|हमारे हाथों में हाथ डालकर कदम से कदम मिलकर जीवन का सफर पूरा कर सके और इसके लिए यह जरूरी है की हमारे अभिवावक अपनी हठीतासे बज आए और हम भी विवाह के दिव्य पक्ष का ख्याल रखकर अपने आप को प्रस्तुत करें|निर्णय का आधार व्यक्तित्व बने नीरा कोरी भौतिकवादी विवशता में किया किया समझौता नहीं|
वैवाहिक निर्णय लेने से पूर्व वर-वधू को यह खुली छूट मिलनी चाहिए की वह एक दूसरे को समझे,शादी माँ-बाप की नहीं होती यदि उन्हे यह रिश्ता कबूल नहीं तो हो तो यह रिश्ता हरगिज न हो|अयोग्यता की काली चादर ओढ़कर उनकी जिंदगी की हसीन कलियों को खिलने से पूर्व ही कब्र में दबा देना कहीं से न्यायसंगत नहीं है|प्रतिकूल रिश्ता एक शव है जिसे सिर पर नहीं ढ़ोया जा सकता है|इस दुर्गंध में घुट-घुट कर मरने से अच्छा है अविवाहित रहना| और हाँ यदि आप दोनों परिस्थितियों मे से किसी के नहीं हो पा रहें हो तो व्यर्थ है आप का जीना बेकार आप जो भी करे आपकी मर्जी किन्तु इतना हमेशा याद रखना होगा कि विवाह कि सार्थकता तभी संभव है जब पति-पत्नी एक दूसरे के प्रति अपना उत्सर्ग करने को प्रस्तुत हों और यह तभी संभव है जब वे वस्तुतः सुयोग्य हो|