Friday, August 2, 2013

बाबूजी कहते थे...


मनुष्य जहां तक आकांक्षा करता है वहाँ ही तक पहुंचता है| बनने की लालसा ही उसके बन सकने का मापक यंत्र है| अपने विचार को दृढ़ करना सफलता को पहले ही हथियाना है| जिस तरह मनुष्य निकृष्ट चीजों के विषय में अनुभव करता है तथा उन्हे जान सकता है| जिस तरह से वह मनुष्य हुआ है उसी तरह से वह देव भी हो सकता है| उच्च तथा नैसर्गिक दिशा की ओर मस्तिष्क को झुकाना अत्यंत आवश्यक है|
विचारशील पुरुष के अपवित्र विचारों के सिवाय और अपवित्रता क्या है?मननशील पुरुष की भव्य भावनाओं को छोड़ और पवित्रता क्या है? कोई मनुष्य दूसरे की सोची हुयी बात नहीं करता|प्रत्येक पुरुष स्वयं ही पवित्र या अपवित्र है| आकांक्षाशील पुरुष अपने सामने स्वर्गीय शिखर के रास्ते को देखता है और उसका हृदय परम शांति का पहले ही अनुभव करता है|             


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