Sunday, October 23, 2011

तेरे बगैर...

धरती-अम्बर जैसे
एक दूजे से दूर,
मिलने को मचल रहे है!
हम भी उनसे कुछ यूँ  
मिलने को मचल रहे है
यूँ तो राहें है बहुत,
पर  मंजिल नहीं है कोई
आलम ये है कि बहुत 
संभल के चल  रहे है !
शाम को जाकर
अक्स उनके देखा
जो  पन्नो के बीच
सुबह होने तक हम
उन्ही में सिमट  रहे है!
अंधेरी रातों में वो
आये मेरे पास कुछ यूँ
कि दिन के उजाले में
हम उनको ढूंढ रहे है !








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