Wednesday, August 21, 2013

नैतिक संस्कारों का पोषक पर्व है 'रक्षाबंधन'!

श्रावणी पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले इस पर्व पर प्रत्येक भाई बहन एक धर्म सूत्र में बंधकर शुभ संकल्प लेते है| यह पर्व आत्मोन्नति का पर्व होने के साथ ही मन की चंचलता को दूर कर शीतलता प्रदान करने वाला पर्व है|जिस प्रकार भगवान भक्त की पूजा के भूखे होते है ठीक उसी प्रकार एक बहन भी अपने भाई से अपनी सुरक्षा और स्नेह का वचन लेती है और ईश्वर से यह प्रार्थना करती है की उसका भाई सदैव स्वस्थ निरोग और दीर्घायु रहे|इसी राखी के पवित्र बंधन ने महाशक्तिशाली असुरराज बलि को बांध दिया था| देवासुर संग्राम मे जब 12 वर्षों तक युद्ध का निर्णय न नीलता दिखाई दे रहा था तब इंद्राणी ने गुरु बृहस्पति के सुझाव पर स्वयं देवराज इन्द्र को यही रक्षासूत्र बांधा ताकि देवराज की युद्ध में विजय हो|आज हमे भी यह संकल्प लेना होगा की हम धार्मिक जीवन,सुसंस्कृत जीवन,नैतिक जीवन को आत्मसात करते हुये और भोग विकृतियों का परित्याग करते हुये अपना नैतिक और सामाजिक उत्थान कर सके|आज इसी ऐतिहासिक भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक पर्व रक्षाबंधन की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाए और बधाई!    

   

Monday, August 5, 2013

मत कहो...

मत कहो कि मै नहीं हूँ
कहीं चला गया हूँ
बस स्थिर हो गया हूँ
बोल नहीं सकता हूँ
पर देख सकता हूँ
सुन सकता हूँ
क्योंकि मै जीवित हूँ...
तुम्हारी यादों में
तुम्हारे आँगन में
देखना तुम मुझे
बदलते मौसम में
खिलते हुये फूलों में
सपनों के महल में
अपने कर्तव्यों में...
जो तुम्हें मिला है
इसे संभालना
लगन से संवारना
विश्वास बनाए रखना
प्रगति के पथ पर
अग्रसर रहना...
मै जीवित रहूँगा
तुम्हारे हर लम्हों में
यादों के हर पन्नों में...

Friday, August 2, 2013

बाबूजी कहते थे...


मनुष्य जहां तक आकांक्षा करता है वहाँ ही तक पहुंचता है| बनने की लालसा ही उसके बन सकने का मापक यंत्र है| अपने विचार को दृढ़ करना सफलता को पहले ही हथियाना है| जिस तरह मनुष्य निकृष्ट चीजों के विषय में अनुभव करता है तथा उन्हे जान सकता है| जिस तरह से वह मनुष्य हुआ है उसी तरह से वह देव भी हो सकता है| उच्च तथा नैसर्गिक दिशा की ओर मस्तिष्क को झुकाना अत्यंत आवश्यक है|
विचारशील पुरुष के अपवित्र विचारों के सिवाय और अपवित्रता क्या है?मननशील पुरुष की भव्य भावनाओं को छोड़ और पवित्रता क्या है? कोई मनुष्य दूसरे की सोची हुयी बात नहीं करता|प्रत्येक पुरुष स्वयं ही पवित्र या अपवित्र है| आकांक्षाशील पुरुष अपने सामने स्वर्गीय शिखर के रास्ते को देखता है और उसका हृदय परम शांति का पहले ही अनुभव करता है|