Friday, September 14, 2012

एक बूढ़ी औरत...

एक बूढ़ी औरत !
राजघाट पर बैठे बैठे रो रही थी
न जाने किसका पाप था जो
अपने आसुओं से धो रही थी
मैंने पूछा माँ! तुम कौन हो?
मेरी बात सुनकर वह
बहुत देर तक रही मौन,
लेकिन जैसे ही उसने
अपना मुंह खोला,लगा
दिल्ली का सिंहासन डोला
वह बोली- अरे तुम जैसे
नालायक़ों के कारण शर्मिंदा हूँ
न जाने अब तक क्यों जिंदा हूं?
अपने ही लोगो की उपेक्षा के कारण
तार-तार हूं चिंदी हूं,
मुझे गौर से देख,
मैं  राष्ट्रभाषा हिन्दी हूं|
जिसे होना था राजरानी
आज नौकरानी है|
मेरे आँचल में तो है सद्भाव,
मगर आँखों में पानी है|
गोरी मेम को दिल्ली की गद्दी
और मुझे बनबास,
कदम कदम पर अब तो
हो रहा है उपहास|
सारी दुनिया भारत को
देखकर चमत्कृत है,
एक भाषा हिन्दी अपने ही
घर में बहिष्कृत है|
बेटा मैं तुम लोगो के पापों को
वर्षों से ढो रही हूं,
कुछ और नहीं कर सकती
इसीलिए बैठ के रो रही हूं|
अगर तुम्हें मेरे आंसूँ,
है पोछने ओ आगे आओ
सोते हुए देश को जगाओ
और इस गोरी मेम को हटाकर
मेरा हक मुझे दिलाओ|
अरे!मै हिन्दी हूँ मुझसे डरो मत
हर भाषा को साथ लेकर चलती हूँ,
और सबके साथ मिलकर
दिवाली के दीपक सा जलती हूँ|

 
 

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